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युद्ध - भाग 1

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :344
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2863
आईएसबीएन :81-8143-196-0

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राम कथा पर आधारित उपन्यास

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Yudh-1

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘दीक्षा’, ‘अवसर’, संघर्ष की ओर’ तथा ‘युद्ध’ के अनेक सजिल्द, अजिल्द तथा पॉकेटबुक संस्करण प्रकाशित होकर अपनी महत्ता एवं लोकप्रियता प्रमाणित कर चुके हैं। महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में इसका धारावाहिक प्रकाशन हुआ है। उड़िया, कन्नड़, मलयालम, नेपाली मराठी तथा अंग्रेजी में इसके विभिन्न खण्डों के अनुवाद प्रकाशित होकर प्रशंसा पा चुके हैं। इसके विभिन्न प्रसंगों के नाट्य रूपान्तर मंच पर अपनी क्षमता प्रदर्शित कर चुके हैं तथा परम्परागत रामलीला मण्डलियाँ इसकी ओर आकृष्ट हो रही हैं। यह प्राचीनता तथा नवीनता का अद्भुत संगम है।

इसे पढ़कर आप अनुभव करेंगे कि आप पहली बार ऐसी रामकथा पढ़ रहे हैं जो सामयिक, लौकिक, तर्कसंगत तथा प्रासंगिक है। यह किसी अपरिचित और अदभुत देश तथा काल की कथा नहीं है। यह इसी लोक और काल की, आपके जीवन से सम्बन्धित समस्याओं पर केन्द्रित एक ऐसी कथा है, जो सर्वकालिक और शाश्वत है और प्रत्येक युग के व्यक्ति का इसके साथ पूर्ण तादाम्य होता है।

युद्ध-1
प्रथम खण्ड
1


बालि को समाचार मिला और भीतर से कोई धक्के मार-मारकर उन्हें उठाने लगा। पर उठकर चल पड़ना उतना आसान नहीं था। अब वे वानरों के राजा थे- सम्राट। अपनी मर्यादा को भूल, उठकर कैसे चल दें। उन्हें चाहिए कि आदेश दें कि दण्डधरों की एक टोली तुरंत नगरद्वार पर भेज दी जाए, और यदि वे भी इस भैंसे को अनुशासित न कर सकें, तो एक गदाधर टोली भी भेज दी जाए यदि वे जीवित भैंसे को अनुशासित न कर सकें, तो उसे मार डालें.... इसमें ऐसी कौन-सी समस्या हैं कि राजा स्वयं उठकर जाए, राजा भी बालि जैसा-वानरों का सम्राट।

किंतु शासक बालि के भीतर एक और बालि बैठा था- आखेटक ! वह जैसे सागर की लहरों के समान, शासक बालि के नियंत्रण में आ-आकर फिसल जाता था... कितने दिनों से वह सुन रहा था कि किष्किंधा के आस-पास के वनों में एक वन्य भैंसा मँडराया करता है। वह सामान्य भैंसा नहीं हैं।

वह असाधारण रूप से वृहदाकार तथा बलशाली है। स्वभाव से हिंस्र है और सामने पड़ने वाले किसी भी जीव से भिड़ जाया करता है। उसके कंठ से निकला शब्द विकट भी था और विचित्र भी। क्रोध में जब वह डकारता तो लगता था जैसे दुंदुभि पर आघात हुआ हो। इसलिए लोगों में उसका नाम दुंदुभि ही प्रसिद्ध हो गया था....

आज प्रातः से ही, उसके किष्किन्धा के प्रवेशद्वार पर आ डटने के समाचार नगर में आ रहे थे। फिर सूचना मिली कि वह द्वार-रक्षकों से भिड़ गया है; और यह भी ज्ञात हुआ कि द्वार पर उपस्थित दण्डधर रक्षक उसके लिए अपर्याप्त सिद्ध हो रहे हैं.....तथा नगर में पर्याप्त त्रास फैल गया है।

सैनिक अथवा दण्डधर टुकड़ी नगरद्वार पर भेजकर बालि कैसे संतुष्ट हो सकते थे ? उसका मन उन्हें कोंच-कोंचकर कह रहा था कि नगरद्वार पर खड़ा यह भैंसा दुंदुभि उन्हें चुनौती दे-देकर अपनी दुंदुभि बजा रहा है। कैसे आखेटक है बालि कि ऐसे में भी वे अपने महल में बैठे-बैठे सैनिक टुकड़ियों को भेज रहे हैं ? चुनौती की दुंदुभि सुनते वे कैसे शांत बैठे रहें ?

शासक बालि कहीं विलीन हो गए, वहाँ केवल आखेटक बालि रह गए।
उसका रुकना मुश्किल था.....उन्होंने अपनी भारी गदा कंधे पर रखी और नगरद्वार की ओर चल पड़े। महल तथा नगर में वह सूचना तब प्रचलित हुई, जब नगरद्वार पर पहुँच चुके थे।

बालि ने अपनी आँखों में दुंदुभि को तोला- वह साधारण भैंसा नहीं था, जिसे मारकर उन्हें अपशय मिलता कि वानरों का शूरवीर सम्राट भैंसों की हत्याएँ करता फिरता है। दुंदुभि वस्तुतः कि वान्य भैंसा था- आखेटक के लिए चुनौती और कसौटी।
द्वार-रक्षक सैनिक सोचते ही रह गए और बालि अपनी गदा के साथ दुंदुभि के सामने जम गए।
दुंदुभि ने अपनी रक्तिम हिंस्र आँखों से अपनी सम्मुख उपस्थित बाधा को देखा और फूत्कार करता हुआ उस पर चढ़ दौड़ा। बालि ने अपनी गदा को घुमाकर दुंदुभि के मस्तक पर आघात किया।

दुंदुभि ने फिर से रुककर बालि को देखा। वह सामान्य वन्य भैंसा नहीं था, जो बालि की गदा के आघात से भाग जाता। वह तो जैसे द्वन्द-युद्ध की तैयारी कर रहा था। आघात को सह, चोट से पीड़ित हो, उसने दौड़ लगाई और आक्रोश में मत्त, प्रतिशोध की भावना से भरा हुआ, वह पूरे वेग के साथ लौटा उसने बालि पर प्रहार किया।

बालि सुखी हुए उन्हें युद्ध के लिए पूरी योग्य प्रतिद्वन्द्वी मिल गया था। उन्होंने घूमकर, दुंदुभि के अगले पुट्ठे पर पूरी शक्ति से गदा दे मारी। किंतु दुंदुभि इस बार भी नहीं भागा। दोनों जैसे ताक-ताककर लड़ रहे थे। लंबे समय तक दोनों में घात-प्रतिघात चलते रहे...अंत में दुंदुभि की पशु-बुद्धि भी समझ गई कि बालि के बल युद्ध-कौशल और गदा के भयंकर आघातों के सामने टिक पाना उसके लिए संभव नहीं हैं.... दुंदुभि के पैर उखड़ गए और वह भाग खड़ा हुआ।

बालि को जीत की प्रसन्नता तो हुई, किंतु दुदुंभि को भागते देख वे संतुष्ट नहीं हुए, जैसे उसके हाथों से उसका खिलौना छिना जा रहा हो। क्रीडा का रस उन्हें सूखता-सा लगा। उसे इस प्रकार भागने नहीं दिया जा सकता था....बालि दुंदुभि के पीछे भागे। घायल दुंदभि का वेग आश्चर्यजनक था। बालि न उनको रोक पा रहे थे,

न उनके साथ भागने में सफलता पा रहे थे। वे दोनों आगे-पीछे भागते रहे। बालि यह देखने के लिए भी नहीं रुके कि कोई उनके साथ आ भी रहा है या नहीं। यह दौड़ मतंग वन तक चली गई...दुंदुभि अपनी पीड़ा में पागल हो रहा था और बालि अपने आक्रोश में। दोनों ने ही बिना कुछ देखे भाले वन में लंबी दौड़ लगाई।

जिधर सींग समाये, दुंदुभि उधर ही भागा। और बालि जैसे किसी चुंबकीय शक्ति से बँधे हुए, उसके पीछे-पीछे भागते चले गये।

सामने ऋष्यमूक की चढ़ाई आ गयी। दुंदुभि रुका वह कदाचित् अपने रक्तस्राव के अतिरेक तथा इस लंबी दौड़ से थककर, जीवन से निराश हो चुका था।.....सहसा वह पलटकर खड़ा हो गया। उसकी आँखों से चिंगारियाँ फूट रही थीं और नथुनों से निरंतर फूत्कार। उसके क्षण-भर रुककर जैसे आँखों में बालि को तोला और फिर झपटा.... वह बड़ा ही निर्णायक आघात था। बालि यदि उसे रोकने का प्रयत्न करते, तो अपनी असाधारण शारीरिक शक्ति के बावजूद निश्चित रूप से मारे जाते।

किंतु बालि ने उसे रोकने का प्रयत्न नहीं किया। वे एक ओर हट गए और जैसे ही दुंदुभि अपने वेग में आगे बढ़ा, बालि ने अपने शरीर से संपूर्ण बल से उसके पिछले पुट्ठे पर गदा का प्रहार किया। दुंदुभि की हड्डियाँ कड़कड़ा उठीं। वह ऐसे बैठा कि उठ नहीं सका....बालि ने जब देखा कि दुंदुभि अब उठ नहीं सकता तो उन्होंने दूसरा आघात उसके मस्तक पर किया।

दुंदुभि की डकराहट का शब्द वन के सहस्त्रों वृक्षों से जा टकराया और उसकी प्रतिध्वनियाँ वन की प्रत्येक दिशा में फैल गईं। दुंदुभि ने अपना सिर पृथ्वी पर डाल दिया.....

बालि को जब पूर्ण रूप से विश्वास हो गया कि दुंदुभि वस्तुतः मर चुका है और वह अब कभी नहीं उठेगा, तब जैसे उसका युद्ध-ज्वर उतरा और उन्होंने यह भी पहचाना की वह किस जोखिम में पड़े थे और मृत्यु उनके कितने निकट थी। यदि वे ठीक समय पर हट न जाते तो दुंदुभि की वह अंतिम झपट निश्चित रूप से उनके लिए यमपाश थी..ये वे जैसे मृत्यु की पकड़ से किसी प्रकार फिसलकर निकल आए थे।

बालि को लगा, उनके मस्तिष्क में से जितना स्थान आवेग ने खाली किया वह न केवल मृत्यु के भय से भरता जा रहा है।, वरन मृत्यु का भय जैसे उनके साहस पौरुष को ही धकेलता जा रहा है....उनके माथे पर स्वेद-बिन्दु ऊभर आए थे। उनके होंठ सूख रहे थे और भीतर-ही-भीतर जैसे वे बहुत थक गये थे.....

सहसा उन्होंने अपने बहुत निकट कहीं मतंगों की चिंघाड़ सुनी। एक नहीं अनेक मतंग एक साथ चिंघाड़ रहे थे और उनके भागने की धमक जैसे बालि के मस्तक पर बज रही थी... उन्होंने दृष्टि उठाकर ऋष्यमूक ढाल पर अनेक मतंग भागते हुए उनकी दिशा में बढ़ रहे थे। उनकी दृष्टि अपने अनुचरों पर भी पड़ी, जो उनके पीछे-पीछे किसी प्रकार यहाँ तक आ गए थे- वे मतंगों की चिघाड़ के पहले शब्द के साथ ही वहाँ से भाग खड़े हुए थे।

उन्होंने गदा हाथ में ली। आँखों से उसको तोला.... किंतु उनका थका हुआ मन साफ-साफ समझ रहा था कि वे अपने पिछले द्वन्द-युद्ध से चूर शरीर की शक्ति से मतंगों के पूरे झुण्ड को रोक नहीं पाएँगे... उनके सामने भी एक ही मार्ग था-पलायन।

बालि भागे। उनका अहंकार उन्हें धिक्कार रहा था और उनका विवेक उन्हें भगाए लिए जा रहा था। वे अनुभव कर रहे थे कि दुंदुभि के लिए लगाई गई दौड़, उसके साथ हुए युद्ध और अब वापसी की दौड़ से उनका शरीर निर्जीव हो रहा था- मन थका हुआ और अहंकार आहत होकर उनके संपूर्ण अस्तित्व को छील रहा था....

नगरद्वार तक पहुँचते बालि सर्वथा बेसुध हो चुके थे। नगरद्वार के रक्षकों ने शिविका का प्रबन्ध कर उन्हें महल में पहुँचाया। महल में हलचल मच गई। तुरंग वैद्य को बुलाया गया, किंतु बालि ने वैद्य से अधिक महत्त्व अपने शगुन-विचारक को दिया। वैद्य को किसी प्रकार टालकर उन्होंने शगुन-विचारक की ओर देखा .....

‘‘प्रभू !’’ शगुन-विचारक ने बहुत गंभीर स्वर में कहा ‘‘भैंसा यम का वाहन है। उससे युद्ध उचित नहीं था। युद्ध के लिए जाने से पूर्व आपने लग्न-विचार भी नहीं करवाया। समय अच्छा नहीं था। और !’’ शगुन-विचारक रुक गया।
‘‘कहो !’’ बालि ने थके-से स्वर में आदेश दिया। ‘‘मतंग वन की दिशा, युद्ध अभियान के लिए सर्वथा अशुभ है। युद्ध के लिए उस दिशा में कभी न जाएं। उस दिशा में विजय नहीं पराजय हैं......और !’’
‘‘और ?’’

‘‘मत्यु की भी संभावना है’’ शगुन-विचारक बहुत धीमे स्वर में बोला। बालि चुप रहे।
‘‘राजन् ! कल प्रातः उपासना के लिए सागर-तट पर अवश्य जाएँ और आज की इस अशुभ घटना में मृत्यु टालने के लिए देवता के प्रति आभार प्रकट करें....।’’
बालि स्थिर दृष्टि से उसे देखते रहे, बोले कुछ नहीं।

शगुन-विचारक चला गया, किंतु बालि के मन में उसके शब्द निरंतर उथल-पुथल मचाते रहे- ‘उस दिशा में कभी न जाएँ...... कभी न जाएँ....’

उनकी आँखों में क्रुद्ध दंदुभि का अंतिम प्रहार जीवंत अनुभव के रूप में घूम गया.....और फिर दौड़ते और चिंघाड़ते हए मतंगों का झुण्ड ....अपने अहंकार के आदेश पर यदि बालि कहीं घड़ी-भर को भी रुक गए होते......? बालि को लगा, वे बहुत थक चुके हैं और अब सोना चाहते हैं।

बालि के मन पर ऐसा विषाद छाया कि वे सहज ही नहीं हो पा रहे थे। प्रातः वे समुद्र-तट पर गए तो समुद्रोपासना में मन नहीं लगा। लौटकर राज-परिषद में आए तो न किसी की बात मानने की इच्छा हुई न कुछ कहने की। थोड़ी देर तक चुपचाप बैठे अपने मंत्रियों-अमात्यों, सामंतों यूथपतियों तथा सेनापतियों की मुद्राएँ देखते रहे। जाने वे क्या कह रहे थे और क्या कर रहे थे। वे उनकी किसी भी क्रिया से तादात्म्य नहीं कर पा रहे थे....


अन्य लोगों का ध्यान भी उस ओर गया।
‘‘क्या बात है, सम्राट स्वस्थ्य नहीं हैं ?’’ सबसे पहले सुग्रीव ने पूछा। ‘‘मन कुछ स्वस्थ्य नहीं हैं।’’ बालि मुँह-ही-मुँह में बुदबुदाए।

‘‘सारी किष्किंधा सम्राट के कल के वीर-कृत्य पर उल्लासित है। एक-एक नागरिक अपने सम्राट पर गर्व कर रहा है और सम्राट हैं कि इस प्रकार अनमने-से बैठे हैं’’ प्रौढ़ तार ने हँसते हुए कहा।

‘‘मुझे लगता है कि कल की भागदौड़ से थकावट हो आई है।’’ सुग्रीव पुनः बोलो। बालि के मन में खीज उठी। यह सुग्रीव अपने शैशव से ही ऐसी बातें करता रहा है। वह मुझे भी अपने समान कोमल समझता है। एक वन्य भैंसे के आखेट से थकावट हो गई। मन में आया, सुग्रीव की ग्रीवा पकड़कर कहें, ‘मैं सुग्रीव नहीं, बालि हूँ। कल की भागदौड़ के बाद भी आज इतनी क्षमता है मुझमें कि फिर से मतंग वन दौड़ लगा आऊँ।’

पर कुछ कहते नहीं बना। मतंग वन के नाम से ही, मन जैसे और भी भारी हो गया।

‘‘मैं आज विश्राम करूँगा।’’ सहसा बालि बोले और उठ खड़े हुए, ‘‘शेष कार्य कल के लिए स्थगित कर दिए जाएँ।’’
तारा को बालि के असमय लौट आने का पता चला, तो दौड़ी आई। बालि को दिन के समय इस प्रकार बिस्तर पर लेटे देखना ही बड़ा आश्चर्यजनक था और उनके चेहरे की उदासी तो अभूतपूर्व थी।
‘‘क्या बात है प्रियतम ?

प्रथम पृष्ठ

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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